SPECIFICATION:
- Publisher : Rajpal and Sons
- By: Amritlal Nagar(Author)
- Binding :Hardcover
- Language : Hindi
- Edition :2013
- Pages: 96 pages
- Size : 20 x 14 x 4 cm
- ISBN-10: 8170280931
- ISBN-13: 9788170280934
DESCRIPTION:
आधी सदी पहले सन 1937 में 'चकल्लस' चबूतरे पर यह 'नवाबी मसनद' आबाद हुई थी। गुलजार सड़के जिस मकान में मेरे 'चकल्लस' अख़बार का दफ्तर था, उसके नीचे ही खुदाबख्श तंबाकूवाले, मौला पहलवान और उनके साझेदार प्यारे साहब ड्राइवर की बर्फ की दुकान थी और कुछ सब्जी फरोश कुनबों की दुकानें भी थीं। खुदाबख्श के बेटे कादिर बक्श बड़ी रंगीन तबीयत के आदमी थे, कबाडिनो के कन्हैया। 'चकल्लस' दफ्तर के नीचे इन दुकानों और फुटपाथ की दुनिया। कादिर मियां की मस्ती से खुशरंग रहती थी। मौला पहलवान और प्यारे साहब भी मुजस्सिम याजूज़-माज़ूज़ की जोड़ी ही थे। एक कुश्तिया पहलवान तो दूसरे अक्ल के अखाड़े के खलीफा। 'अवध अखबार' की खबरों के परखचे उड़ाये जाते, आसपास की बातों पर होने वाली बहसों में लालबुझक्कडी लाजिक के ऐसे-ऐसे कमाल नजर आते कि दिल बाग-बाग हो हो जाता था। 'नवाबी मसनद' अपने समय में लोकप्रिय हुई। निराला जी इसके नियमित पाठक और प्रशंसक थे। आशा करता हूं कि पचास वर्षों के बाद आज भी पाठक इसे पसंद करेंगे। (भूमिका से)
Description
SPECIFICATION:
- Publisher : Rajpal and Sons
- By: Amritlal Nagar(Author)
- Binding :Hardcover
- Language : Hindi
- Edition :2013
- Pages: 96 pages
- Size : 20 x 14 x 4 cm
- ISBN-10: 8170280931
- ISBN-13: 9788170280934
DESCRIPTION:
आधी सदी पहले सन 1937 में 'चकल्लस' चबूतरे पर यह 'नवाबी मसनद' आबाद हुई थी। गुलजार सड़के जिस मकान में मेरे 'चकल्लस' अख़बार का दफ्तर था, उसके नीचे ही खुदाबख्श तंबाकूवाले, मौला पहलवान और उनके साझेदार प्यारे साहब ड्राइवर की बर्फ की दुकान थी और कुछ सब्जी फरोश कुनबों की दुकानें भी थीं। खुदाबख्श के बेटे कादिर बक्श बड़ी रंगीन तबीयत के आदमी थे, कबाडिनो के कन्हैया। 'चकल्लस' दफ्तर के नीचे इन दुकानों और फुटपाथ की दुनिया। कादिर मियां की मस्ती से खुशरंग रहती थी। मौला पहलवान और प्यारे साहब भी मुजस्सिम याजूज़-माज़ूज़ की जोड़ी ही थे। एक कुश्तिया पहलवान तो दूसरे अक्ल के अखाड़े के खलीफा। 'अवध अखबार' की खबरों के परखचे उड़ाये जाते, आसपास की बातों पर होने वाली बहसों में लालबुझक्कडी लाजिक के ऐसे-ऐसे कमाल नजर आते कि दिल बाग-बाग हो हो जाता था। 'नवाबी मसनद' अपने समय में लोकप्रिय हुई। निराला जी इसके नियमित पाठक और प्रशंसक थे। आशा करता हूं कि पचास वर्षों के बाद आज भी पाठक इसे पसंद करेंगे। (भूमिका से)
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